कुतुब मीनार
कुतुब मीनार
लेखक:- सतीश चंद्र
पुस्तक:- मध्यकालीन भारत
प्रकाशक:- ओरिएंट ब्लैकस्वान
प्रकाशन वर्ष:- 2017
प्रकाशन स्थल:- नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 179
"13 वी सदी में भारत में तुर्कों की बनाई सबसे शानदार इमारत कुतुब मीनार है। मूलत 71.4 मीटर ऊंची ऊपर की ओर पतली होती जाती इस मीनार का निर्माण, ऐबक ने शुरू कराया था ,और बाद में इसे इल्तुतमिश ने पूरा किया। यह सोचना गलत है कि यह दिल्ली के लोकप्रिय सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी को समर्पित है, उनको समर्पित इमारत का नाम कुवत उल इस्लाम मस्जिद था।"
प्रिय पाठको हम जानते हैं, कि आप लोग हमारी वेबसाइट पर तथ्यों को प्राप्त करने आते हैं। आज के इंडेक्स कार्ड में हम आप लोगों को सल्तनत काल की स्थापत्य कला के अंतर्गत आने वाली भारत की सबसे ऊंची कुतुब मीनार के बारे में जानकारी दे रहे हैं। यह विवाद हमेशा से रहा है कि कुतुब मीनार का नामकरण किसके नाम पर हुआ है, जैसा कि उपरोक्त तथ्य में प्रसिद्ध इतिहासकार सतीश चंद्र ने प्रमाणित किया है।
अनेक इतिहासकार कुतुबमीनार को कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी से जोड़कर देखते हैं, लेकिन प्रसिद्ध इतिहासकार सतीश चंद्र ने अपने तथ्यों द्वारा इसको नकार दिया है। सल्तनत काल में विशेष रूचि रखने वाले क़तुब मीनार एवं सल्तनत काल की स्थापत्य कला का अध्ययन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह पुस्तक पढ़नी चाहिए। इसमें मध्यकालीन भारत की संपूर्ण जानकारी लेखक द्वारा प्रस्तुत की गई है।
नोट:- यह पुस्तक सिविल सेवा की तैयारी कर रहे विद्यार्थियों के लिए भी महत्वपूर्ण है। इतिहास की कुछ अन्य पुस्तकें निम्न प्रकार है: -
1. Ancient India (Ram Sharan Sharma)
2. Mediaeval India (Satish Chandra)
3. Modern India (Bipin Chandra)
4. Ancient India (Upendra Singh)
5. Indian culture (CCRT Publication)
6. Indian culture (Nitin Singhania)
7. A survey of World History (Dinanath Verma)
8. Modern India (Spectrum)
9. Teach Yourself Series (History of India and World)
10. Indian History Series (S.K. Pandey)
नीचे इस पुस्तक का लिंक उपलब्ध है ताकि आप इस पुस्तक को खरीद कर स्वयं पढ़ सके या किसी इतिहास के विद्यार्थी को गिफ्ट कर सकें। हम भविष्य में भी इस प्रकार के इंडेक्स कार्ड आप लोगों के लिए बनाते रहेंगे ताकि आप लोगों के शोध की गुणवत्ता अच्छी हो ।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
Post a Comment