ब्राह्मी लिपि
ब्राह्मी लिपि
लेखक:- डी. एन. झा
पुस्तक:- प्राचीन भारत: एक रूपरेखा
प्रकाशक:- मनोहर पब्लिशर्स एंड डिसटीब्यूटर्स
प्रकाशन वर्ष:- 1997
प्रकाशन स्थल:- दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 34,63
भारत की अब तक बची हुई प्राचीन लिपि का नमूना 'ब्राह्मी' में लिखित 'अशोक' (तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व) के शिलालेखों में मिलता है। कहा जाता है, कि ब्राह्मी लिपि कई सदियों में विकसित हुई थी। लगभग 100 साल पहले तक अशोक पुराणों में उल्लिखित महज एक काल्पनिक मौर्य राजा था। 1837 में जेम्स प्रिंसेप ने देवानांप्रिय प्रियदर्शी (देवताओं का प्रिय) नामक एक राजा का वर्णन ब्राह्मी लिपि में लिखित एक शिलालेख में पढ़ा और उसका अर्थ समझा। उसके बाद उसी तरह के अनेक शिलालेखों का पता लगा।
भारत के प्राचीन इतिहास को जानने के लिए और भारत के प्राचीन इतिहास पर रिसर्च करने के लिए ब्राह्मी लिपि को जानना बहुत आवश्यक है। प्रारंभ में ब्राह्मी लिपि में ही अधिकतर ग्रंथों की रचना हुई थी। वैदिक काल में संस्कृत भाषा विद्यमान थी। बौद्ध धर्म के उत्थान के समय पाली भाषा एवं जैन धर्म के उत्थान के समय प्राकृत भाषा का बोलबाला था। उसके बाद धीरे-धीरे हिंदी का विकास हुआ। लेकिन सभी भाषाओं का मूल ब्राह्मी लिपि रहा। इसलिए ब्राह्मी लिपि से संबंधित तथ्यों को जानने के लिए आप प्रस्तुत पुस्तक को पढ़ सकते हैं। ब्राह्मी लिपि को जानना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि अशोक के अधिकांश शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं। अशोक को जानना इसलिए जरूरी है, क्योंकि अशोक मौर्य साम्राज्य का सबसे ताकतवर सम्राट था। मौर्य सम्राट अशोक के राजनीतिक संबंध भारत और आसपास के क्षेत्रों से थे। उस समय भारत राजनीतिक शक्ति के रूप में एक ताकतवर देश बन चुका था।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
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