ललितादित्य मुक्तापीड़
ललितादित्य मुक्तापीड़
लेखक:- हरीश चंद्र वर्मा
पुस्तक:- मध्यकालीन भारत भाग 1 (750 से 1540 ईसवी)
प्रकाशक:- हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रकाशन वर्ष:- 1993
प्रकाशन स्थल:- नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 14
आठवीं शताब्दी के मध्य काल में (लगभग 724 से 760 ईसवी) कश्मीर में ललितादित्य मुक्तापीड़ का शासन था। उसके नाम से यह संकेत मिलता है, कि वह कार्कट वंश के जनजातीय परिवेश में उत्पन्न हुआ था। ललितादित्य के समय कश्मीर की पर्याप्त राजनीतिक तथा सांस्कृतिक प्रगति हुई। उसने एक ओर तो कन्नौज के यशोवर्मन को हराया और दूसरी ओर काबुल तक विजय प्राप्त की व अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत किया। उसने बुद्धिमानी के साथ विदेशों से राजनीतिक संबंध स्थापित किए और चीन राज्य में अपना राजदूत भी भेजा। धार्मिक दृष्टि से पर्याप्त उदार होने के कारण उसने बौद्ध विहार तथा हिंदू मंदिर निर्मित कराए थे--- जिनमें उसके द्वारा निर्मित मार्तंड (सूर्य) मंदिर बहुत प्रसिद्ध हुआ।
कश्मीर के इतिहास में ललितादित्य मुक्तापीड़ का नाम प्रसिद्ध है। कल्हण ने अपनी पुस्तक राजतरंगिणी में कश्मीर के इतिहास के बारे में विस्तृत चर्चा की है। यह पुस्तक भारतीय इतिहास की सबसे पहली प्रामाणिक ऐतिहासिक पुस्तक है, क्योंकि इससे पहले की सभी पुस्तकें किसी ने किसी धर्म से संबंधित थी। राज तरंगिणी में कल्हण ने तिथियों का उल्लेख भी किया है, तथा धर्मनिरपेक्ष ऐतिहासिक घटनाओं का क्रमिक वर्णन किया है।
कश्मीर के इतिहास को जानने के लिए अथवा ललितादित्य मुक्ता पीड़ पर रिसर्च करने के लिए प्रस्तुत पुस्तक को पढ़े।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
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