अर्बन डीके इन इंडिया
अर्बन डीके इन इंडिया
लेखक:- ई० श्रीधरन
पुस्तक:- इतिहास लेख (एक पाठयपुस्तक)
प्रकाशक:- ओरिएंट ब्लैक्सवॉन
प्रकाशन वर्ष:- 2019
प्रकाशन स्थल:- हैदराबाद
पृष्ठ संख्या:- 433-434.
"आर० एस० शर्मा की पाठ्यपुस्तक अर्बन डीके इन इंडिया (1987) भारत में सामंतवाद की उत्पत्ति और विकास से संबंधित उनके विचारों को और अधिक दृढ़ता से व्यक्त करती है। वह पूर्व मध्यकालीन भारत में नगरीय केंद्रों के पतन को दर्शाने के लिए पुरातात्विक साक्ष्यों की एक प्रभावशाली श्रंखला प्रस्तुत करते हैं "
प्रिय पाठको हम जानते हैं, कि आप लोग हमारी वेबसाइट पर अपने शोध कार्य की गुणवत्ता को बरकरार रखने के लिए तथ्यों की खोज में भटकते हुए आते हैं। इस इंडेक्स कार्ड में आप लोगों को भारतीय सामंतवाद से संबंधित जानकारी प्रस्तुत की गई है। वस्तुत भारतीय सामंतवाद (गुप्त काल एवं पूर्व मध्यकालीन इतिहास) के अध्ययन के लिए प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार राम शरण शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक अर्बन डीके इन इंडिया का अध्ययन करना अति आवश्यक है।
इतिहास लेख के माध्यम से प्रसिद्ध इतिहासकार ई० श्रीधरन ने प्रारंभ से लेकर 2000 ईस्वी तक के इतिहास लेखन के कार्य को संकलित एवं प्रस्तुत किया है। यदि आप इतिहास लेख (Historiography) में रुचि रखते हैं, या इतिहास के विद्यार्थी या शोधार्थी हैं, तो उपरोक्त दोनों पुस्तकों को पढ़ सकते हैं।
नोट:- उपरोक्त दोनों पुस्तकें भी भारतीय सामंतवाद को जानने में आपकी सहायता कर सकती है। इन्हें जाने माने सुप्रसिद्ध इतिहासकार आर० एस० शर्मा एवं डी०एन० झा द्वारा लिखा गया है।
1. भारतीय सामंतवाद (आर० एस० शर्मा)
2. भारतीय सामंतवाद: राज्य, समाज और विचारधारा (डी०एन० झा)
नीचे इस पुस्तक का लिंक उपलब्ध है ताकि आप इस पुस्तक को खरीद कर स्वयं पढ़ सके या किसी इतिहास के विद्यार्थी को गिफ्ट कर सकें। हम भविष्य में भी इस प्रकार के इंडेक्स कार्ड आप लोगों के लिए बनाते रहेंगे ताकि आप लोगों के शोध की गुणवत्ता अच्छी हो ।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
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