1947 में महिलाओं की स्थिति
1947 में महिलाओं की स्थिति
लेखक:- बिपिन चंद्र
पुस्तक:- समकालीन भारत
प्रकाशक:- अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा० लिमिटेड
प्रकाशन वर्ष:- 2001
प्रकाशन स्थल:- नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 29
"राष्ट्रीय आंदोलन ने लाखों नारियों को घर एवं रसोई से निकालकर राजनीति के क्षेत्र में खींच लिया था। परंतु समाज पर पुरुषों का प्रभुत्व अब भी बना हुआ था और परिवार में नारी अब भी सामाजिक उत्पीड़न का शिकार थी। बहुपत्नीत्व अब भी मौजूद था - हिंदू पुरुष जितनी नारियों के साथ चाहे विवाह कर सकता था। औरतों को उतारा उत्तराधिकार का कोई अधिकार नहीं था, न ही तलाक का अधिकार था और उनके लिए अब भी कमोबेश शिक्षा पाने की मनाही थी।"
प्रिय पाठकों क्या आप लोग भारत विभाजन के समय महिलाओं की स्थिति के बारे में जानना चाहते हैं। यदि हां तो आप लोग सही तथ्य तक पहुंच चुके हैं। हम आप लोगों को यह सुझाव देंगे, कि तत्कालीन महिलाओं की दशा को जानने के लिए आप उपरोक्त पुस्तक को पढ़ने का कष्ट करें।
यह तो हम सब जानते ही हैं, कि प्रारंभ से ही भारतीय संस्कृति (वैदिक एवं उत्तर वैदिक संस्कृति) में पितृसत्तात्मक व्यवस्था विद्यमान रही है। कुछ राज्यों में मातृसत्तात्मक व्यवस्था विद्यमान थी, और कुछ जनजातियों में अब भी विद्यमान है। यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था महिलाओं का मानसिक, शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक शोषण करती रहती है। यह तथ्य कुछ लोगों को परेशान और विचलित कर सकते हैं, क्योंकि कुछ लोग सच्चाई को छिपा रहने देना चाहते हैं।
नीचे इस पुस्तक का लिंक उपलब्ध है ताकि आप इस पुस्तक को खरीद कर स्वयं पढ़ सके या किसी इतिहास के विद्यार्थी को गिफ्ट कर सकें। हम भविष्य में भी इस प्रकार के इंडेक्स कार्ड आप लोगों के लिए बनाते रहेंगे ताकि आप लोगों के शोध की गुणवत्ता अच्छी हो ।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
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