शेरशाह का किसान प्रेम
शेरशाह का किसान प्रेम
लेखक:- सतीश चंद्र
पुस्तक:- मध्यकालीन भारत
प्रकाशक:- ओरिएंट ब्लैकस्वान
प्रकाशन वर्ष:- 2017
प्रकाशन स्थल:- नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 219
"किसानों के कल्याण का शेरशाह को बहुत ख्याल था। उसका कहना था:, "किसान लोग निर्दोष है, वे तो सत्ताधारियों के आगे झुक जाते हैं और मैं अगर उनका दमन करूंगा तो वे गांव से भाग खड़े होंगे, जिससे मुल्क तबाह और वीरान हो जाएगा और उसे फिर से खुशहाल होने में लंबा वक्त लग जाएगा "
प्रिय पाठको हम जानते हैं, कि आप लोग हमारी वेबसाइट पर ऐसे तथ्य प्राप्त करने आते हैं, जिन्हें ढूंढना आम आदमी के बस की बात नहीं है। अधिकतर सरकारें भी नहीं चाहती कि सच्चाई सबके सामने आए। लेकिन कुछ लोग इतने निडर होते हैं, कि वे बिना डरे सच्चाई को बयां करते हैं, ताकि अच्छे इंसानोंं के उन्मूलन को रोका जा सके।
वर्तमान समय में भारत की केंद्रीय सरकार किसानों के लिए एक कानून बना चुकी है। जिसका विरोध संपूर्ण देश के किसान कर रहे हैं। भारत के प्रत्येक राज्य में किसानों का धरना प्रदर्शन देखा जा सकता है। यदि कोई विद्यार्थी किसानों की दशा पर अनुसंधान कर रहा है, तो उसके लिए यह जानना अति आवश्यक है, कि वह शेरशाह के बारे में भी जानकारी जुटाए। यह तथ्य राजनीति में रुचि रखने वाले लोगों के लिए भी अच्छा है।
प्रस्तुत पुस्तक मध्यकालीन भारत पर लिखी गई है। इसमें शेरशाह द्वारा किसानों के साथ किए गए व्यवहार का वर्णन उपलब्ध है। किसान किसी भी देश की मुख्य धरोहर होते हैं। इसीलिए उनका संरक्षण करना राज्य का परम कर्तव्य होना चाहिए। प्रस्तुत पुस्तक लिखने के लिए प्रसिद्ध इतिहासकार सतीश चंद्र धन्यवाद के पात्र है।
नीचे इस पुस्तक का लिंक उपलब्ध है ताकि आप इस पुस्तक को खरीद कर स्वयं पढ़ सके या किसी इतिहास के विद्यार्थी को गिफ्ट कर सकें। हम भविष्य में भी इस प्रकार के इंडेक्स कार्ड आप लोगों के लिए बनाते रहेंगे ताकि आप लोगों के शोध की गुणवत्ता अच्छी हो।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
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