भीमबेटका
भीमबेटका
लेखक:- डी एन झा
पुस्तक:- प्राचीन भारत का इतिहास: विविध आयाम
प्रकाशक:- हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रकाशन वर्ष:- 2014
प्रकाशन स्थल:- दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 26
पुरापाषाण और मध्य पाषाण युगों के लोग चित्रकारी करते थे। इसके साक्ष्य कई ठिकानों पर मिले हैं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण है, मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 45 किलोमीटर दक्षिण भीमबेटका का ठिकाना। यहां हमें पुरापाषाण से लेकर मध्य पाषाण युग तक चट्टानों पर की जाने वाली चित्रकारी के भरपूर प्रमाण मिलते हैं। भीमबेटका, आजमगढ़, प्रतापगढ़ तथा मिर्जापुर के ठिकाने असंदिग्ध रूप से मध्य पाषाण काल युगीन कला की साक्षी भरते हैं। इन ठिकानों की चित्रकारियों से हमें शिकार, खाद्य संग्रह और मछली पकड़ने के साथ-साथ लैंगिक संसर्ग, शिशु जन्म और दफनाने जैसे अन्य मानव कार्यकलापों के प्रमाण प्राप्त होते हैं और इस प्रकार इनसे हमें लोगों की सामाजिक आर्थिक तथा अन्य गतिविधियों का अच्छा अंदाजा मिलता है।
क्या आप लोगों के मस्तिष्क में लाखों वर्ष पहले के इतिहास को जानने की इच्छा या जिज्ञासा होती है। यदि होती है, तो आप लोग जरूर प्रागैतिहासिक साक्ष्यों को अपनी आंखों से देखना पसंद करेंगे। हम इस लेख में आपकी सहायता कर रहे हैं। यदि आप भारतीय प्रागैतिहासिक काल की संस्कृति को देखना और महसूस करना चाहते हैं, तो आपको भारत के मध्य प्रदेश राज्य में स्थित भीमबेटका की गुफाओं को देखना चाहिए। ये गुफाएं मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के पास रायसेन में स्थित है।
अगर आप लोग पिकनिक मनाने की सोच रहे हैं, तो आपको अपने पूरे परिवार के साथ भीमबेटका जाना चाहिए। यह पिकनिक आपके ज्ञान में वृद्धि करने के साथ साथ आपके बच्चों के ज्ञान में भी वृद्धि करेगी। वहां बेतवा नदी के किनारे प्रकृति की सुंदरता को आप नंगी आंखों से निहार सकते हैं। आपको वहां प्राकृतिक पेड़-पौधों के अलावा आदिवासियों के द्वारा पहाड़ों पर रहने के लिए बनाई गई गुफाओं को देखने के साथ-साथ उनके द्वारा की गई चित्रकारी को देखने का अवसर भी मिलेगा।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
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