लोहा
लोहा
लेखक:- डी. एच. गार्डन
पुस्तक:- भारतीय संस्कृति की प्रागैतिहासिक पृष्ठभूमि
प्रकाशक:- हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रकाशन वर्ष:- 1970
प्रकाशन स्थल:- दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 188-89
ईसवी पूर्व 483 में गौतम बुध की मृत्यु के करीब हेरोडोटस और कटेसियस का जन्म हो गया था। जो प्रथम लेखक है, जिन्होंने भारत में लोहे का अविवाद वर्णन किया है। हेरोडोटस द्वारा वर्णित लोहे के तीर जो एकसरस की सेना के भारतीय सैनिकों के हाथ में थे, ये किसी भी जगह से प्रस्तुत किए जा सकते थे, परंतु संभवत: भारत में ही बने होंगे। दूसरी ओर कटेसियास कार्टाक्जेकर्जस नेमन को उपहार में दी गई दो भारतीय स्पात की बनी तलवारों के प्रकर्ष का वर्णन करता है। जिसमें लगता है कि अच्छे लोहे और इस्पात की ख्याति जो, पश्चिम के साथ चेराज (शिराज) के लोहे की और इस्पात के व्यापार के लिए महत्वपूर्ण था, पूर्णरूपेण हो चुकी थी।
भारत में लोहे से संबंधित तथ्य जानने के लिए आप लोग इस पुस्तक की ओर आकर्षित हो सकते हैं। वैसे तो भारत में एक हजार ईसा पूर्व लोहे का पूर्ण रूप से इस्तेमाल होने लगा था, लेकिन धीरे-धीरे बाद के समय में लोहे के प्रयोग में वृद्धि हुई। महापाषाण काल में लोहे का प्रयोग सर्वाधिक हुआ एवं उसके बाद द्वितीय नगरीकरण के समय अर्थात महाजनपद काल में लोहे का प्रयोग सबसे ज्यादा हुआ था।
प्रस्तुत पुस्तक में भारत के प्रागैतिहासिक काल की काफ़ी जानकारी उपलब्ध कराई गई है। प्रागैतिहासिक काल के बारे में जानने के लिए अथवा रिसर्च करने के लिए प्रस्तुत पुस्तक को पढ़ने का कष्ट करें।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
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