सती प्रथा
सती प्रथा
लेखक:- सतीश चंद्र
प्रकाशक:- ओरियंट ब्लैकस्वान
प्रकाशन वर्ष:- 2007
प्रकाशन स्थल:- नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 45
सती प्रथा को कुछ लेखकों ने अनिवार्य बतलाया है जबकि औरों ने इसकी निंदा की है। अरब लेखक सुलेमान के अनुसार राजाओं की पत्नियां कभी-कभी मृत पतियों की चिताओं पर स्वयं को जला देती थी, लेकिन ऐसा करना या ना करना उनकी इच्छा पर निर्भर था। लगता है कि अग्रणी सरदारों द्वारा बड़ी संख्या में पत्नियां रखने की प्रथा बढ़ी और फलस्वरूप संपत्ति को लेकर विवाद खड़े होने लगे तो सती प्रथा के प्रसार की प्रवृत्ति सामने आई।
सती प्रथा पर अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग प्रकार के विचार प्रकट किए हैं। कुछ मार्क्सवादी इतिहासकार सती प्रथा को कुछ ब्राह्मणों द्वारा संचालित आर्थिक क्रिया मानते हैं। लेकिन कुछ अन्य यह मानते हैं, कि विदेशी आक्रमणों के पश्चात भारतीय राजपूत नारियों ने अपनी इज्जत की रक्षा करने के लिए सती होना स्वीकार किया।
मार्क्सवादी इतिहासकार अपना तर्क यह देते हैं, कि सती के समय महिला को सज-धज कर आना होता था। उसके सारे गहनों को धार्मिक अनुष्ठान के रूप में ब्राह्मण अपने आप ले लेता था।
लेकिन राजपूतों का वर्णन इसलिए किया जाता है, क्योंकि राजपूत नारी ही अधिकतर सती प्रथा में शामिल रहती थी। भारतीय जनजातियों के लोग प्रारंभ में सती प्रथा को नहीं मानते थे। यह केवल एक संभ्रांत वर्ग के लोगों की प्रथा रही है।
सती प्रथा को रोकने के अनेक प्रयास किए गए। मुस्लिम शासकों ने सती प्रथा को रोकने के लिए कई प्रयास किए जिनमें अकबर और औरंगजेब के प्रयास सराहनीय है। उसके पश्चात मराठों ने भी सती प्रथा को रोकने में अतुल्य भूमिका निभाई और प्रयास किये। इसके बाद अंग्रेजों ने हिंदू धर्म की तमाम कुरीतियों को रोकने में भूमिका निभाई और परिणाम स्वरूप अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति हुई। लॉर्ड विलियम बेंटिक और राजा राममोहन राय ने सती प्रथा को 1829 में बैन कर दिया था।
वर्तमान में हमारी सरकार सती प्रथा को गैरकानूनी मानती है, लेकिन कुछ तथाकथित हिंदू धर्म के संरक्षक सती प्रथा को आज भी सही ठहराते हैं।
सती प्रथा के विषय में रिसर्च कर रहे लोगों के लिए यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है। इस लेख को पढ़ने के पश्चात इसके बारे में अपने कमेंट अवश्य उपलब्ध कराएं।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
Post a Comment