विभाजन की अनिवार्यता
विभाजन की अनिवार्यता
लेखक:- सुभाष कश्यप
पुस्तक:- भारत का संवैधानिक विकास और संविधान
प्रकाशक:- हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रकाशन वर्ष:- 2009
प्रकाशन स्थल:- दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 224
"इस बारे में दो मत नहीं हो सकते कि भारत वासियों का विशाल बहुमत विभाजन का कट्टर विरोधी था। हिंदू और सिख तो उसके विरुद्ध थे ही, मुसलमानों का भी एक वर्ग उसके खिलाफ था। फिर भी इस बारे में विभिन्न मत हो सकते हैं कि कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं - विशेषकर नेहरू और पटेल ने उस समय सांप्रदायिक आधार पर, देश के विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना को स्वीकार कर उचित किया या अनुचित।
प्रिय पाठको हम जानते हैं, कि आप लोग हमारी वेबसाइट पर उस तथ्य को तलाशते हैं, जो आपके शोध की गुणवत्ता को बनाए रखें। भारत विभाजन और पाकिस्तान का निर्माण आज भी अनुसंधान का एक अच्छा टॉपिक है। समय समय पर आने वाली राजनीतिक सरकारें लोगों की विचारधारा और उनके मनोभावों को अपनी विचारधारा के अनुरुप ढालने के लिए तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश करती रहती है।
इसलिए प्रत्येक अनुसंधानकर्ता का यह उद्देश्य होना चाहिए कि वह प्रत्येक तथ्य का परीक्षण करते समय अनुसंधान क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली सूक्ष्म एवं वृहत आलोचनात्मक पद्धति का प्रयोग करें। भारत विभाजन जैसे बड़े मुद्दे पर रिसर्च करते वक्त आपको ज्यादा सतर्कता बरतनी होगी।
वैसे आपकी पक्षपात रहित रिसर्च को सरकार या कुछ संगठन गलत साबित करने का प्रयास कर सकते हैं। आपको दंडित भी किया जा सकता है। क्योंकि कुछ लोग किसी भी रिसर्च का परिणाम अपनी विचारधारा के अनुकूल चाहते हैं, चाहे वह भ्रामक, झूठा एवं षड्यंत्र पूर्ण ही क्यों ना हो। किसी भी वस्तु के गुणों को उसके वास्तविक गुणों से अच्छा या बुरा बताना यानी कि उसके गुणों का महिमामंडन करना इनके उद्देश्य में सम्मिलित है। अधिकतर देशों की सरकारें एवं सामाजिक धार्मिक संगठन ऐसा करते रहते हैं। अधिक जानकारी के लिए आप इस पुस्तक को पढ़ सकते हैं।
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संदर्भ ग्रंथ सूची:-
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
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