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मोस्तरी संस्कृति

मोस्तरी संस्कृति

लेखक:- एल. पी. शर्मा
पुस्तक:- प्राचीन भारत
प्रकाशक:- लक्ष्मीनारायण अग्रवाल
प्रकाशन वर्ष:- 1975
प्रकाशन स्थल:- आगरा
पृष्ठ संख्या:- 32

मोस्तरी संस्कृति

मध्य पुरापाषाण काल के उपकरण अपने भौगोलिक क्षेत्र के साथ विविधता रखते हैं। इनमें प्रमुख उपकरण है,- चापार-चॉपिंग, हस्त-कुठार, बेधक, खुरचनियां, तक्षिणियां आदि। पश्चिमी क्षेत्र के उपकरण अधिक उन्नत है, ये उपकरण बढ़िया नोक वाले हैं। पूर्वी क्षेत्र की तुलना में पश्चिमी क्षेत्र की लवालवाई तकनीकी अधिक उन्नत है। इस क्षेत्र के उपकरण पश्चिमी यूरोप की मोस्तरी संस्कृति से काफी साम्यता रखते हैं। हो सकता है, कि भारत के पश्चिमी क्षेत्र का इन विदेशी संस्कृतियों से कुछ संपर्क रहा हो, परंतु ऐसा किसी तुलना का प्रयत्न करने से पहले हमें अपने देश से अधिक पुष्ट आधार सामग्री अवश्य प्राप्त होनी चाहिए।

मोस्तरी संस्कृति

प्रागैतिहासिक काल में भारत से प्राप्त पाषाण के उपकरणों व यूरोप में पाए जाने वाले पाषाण के उपकरणों में समानता है। इसी समानता को मद्देनजर रखते हुए हम यह मान सकते हैं, कि यूरोप की मोस्तारी संस्कृति का विकास भारत तक रहा होगा। लेकिन इस रिसर्च को अभी और अधिक समय तक करना उपयोगी होगा, क्योंकि इस तथ्य की पुष्टि करने के लिए अधिक साक्ष्यों की आवश्यकता है। प्रागैतिहासिक संस्कृति से संबंधित ज्ञान प्राप्त करने के लिए आप उपरोक्त पुस्तक पढ़ सकते हैं।

नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।

सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।

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