वेश्यावृत्ति
वेश्यावृत्ति
लेखक:- डीएन झा
पुस्तक:- प्राचीन भारत का इतिहास: विविध आयाम
प्रकाशक:- हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रकाशन वर्ष:- 2014
प्रकाशन स्थल:- दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 80
शहरी सामाजिक जीवन में जो एक और महत्वपूर्ण बात हुई थी, वह ही वेश्यावृत्ति की अभिवृद्धि। शहरों के उदय और जातिगत विभेदों में तीव्रता आने के फल स्वरुप पुराने कबायली परिवार के टूटने से मूल विच्छिन स्त्रियों का एक वर्ग खड़ा हो गया होगा, जिन्होंने जीविकोपार्जन के लिए वेश्यावृत्ति अपना ली होगी। आरंभिक बौद्ध साहित्य में शहरों में निवास करने वाली गणिकाओं का उल्लेख हुआ है। अंबापाली के कारण वैशाली को बहुत ख्याति मिली। यह गणिका एक रात के मनोरंजन के लिए 50 कार्षापण लिया करती थी।
वेश्यावृत्ति को कुछ लोग समाज के लिए बुरा मानते हैं, वहीं कुछ लोग इसका समर्थन भी करते हैं। वेश्यावृत्ति करने वाली महिलाओं को अनेक कष्ट सहना पड़ता है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखे तो पता लगता है, कि शुरुआत में महिलाओं को मजबूरन वेश्यावृत्ति करनी पड़ी थी।
वेश्यावृत्ति के कारण:-
- जब बड़े स्तर पर ही युद्ध होते थे और सैनिक मारे जाते थे तो उम्र तक सैनिकों की विधवाओं अपनी दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेश्यावृत्ति की ओर आकर्षित हो जाती होगी।
- गरीबी दूसरा कारण रहा होगा।
- इसके अलावा कुछ महिलाओं ने पेशे के तौर पर भी इस कार्य को किया होगा।
- कारण जो भी रहा हो वेश्यावृत्ति में महिलाओं का उत्पीड़न ज्यादा होता रहा है। क्योंकि समाज में महिलाओं को जीवन जीने के अधिकार पुरुष के मुकाबले कम मिले थे। इस कारण महिलाएं हमेशा शोषण से जूझती रही है।
पुराने सामाजिक नियमों में वेश्यावृत्ति को बेकार की चीज मान लिया गया था। जबकि प्राचीन काल में वेश्यावृत्ति राजा महाराजाओं के सुख सुविधा का साधन थी। आधुनिक काल में अनेक देशों ने महिलाओं एवं पुरुषों को अपनी इच्छा अनुसार जीवन जीने की आजादी दी हुई है। आज के समय में कुछ देशों में कमर्शियल वेश्यावृत्ति गलत मानी जाती है, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर आदमी वेश्यावृत्ति में संलिप्त रह सकते हैं।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
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