स्त्रीधन
स्त्रीधन
लेखक:- डीएन झा
पुस्तक:- प्राचीन भारत का इतिहास: विविध आयाम
प्रकाशक:- हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रकाशन वर्ष:- 2014
प्रकाशन स्थल:-नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 174
स्त्रियों को स्त्रीधन अर्थात वस्त्र आभूषणों के अतिरिक्त और किसी भी संपत्ति पर अधिकार नहीं दिया गया। बल्कि स्वयं स्त्रियां ही संपत्ति मानी जाने लगी, जिन्हें किसी को भी स्थाई या अस्थाई रूप से सौंपा जा सकता था। उनकी आजीवन पराधीनता के पक्ष में जोरदार दलील दी गई है।
प्राचीन भारतीय इतिहास में स्त्री धन का उल्लेख मिलता है। प्राचीन संस्कृति में स्त्री धन को इस प्रकार समझा जा सकता है, कि विवाह के वक्त वधू के माता पिता वधू को जो आभूषण एवं चीजें प्रधान करते थे, वे स्त्रीधन के अंतर्गत आती थी। स्त्री धन पर केवल स्त्री का अधिकार होता था, एवं उस स्त्री की मौत के बाद उस पर केवल उसकी पुत्री का उस धन पर अधिकार होता था। अगर पुत्री उपलब्ध ना हो तो परिवार की किसी भी महिला को वह हस्तांतरित हो जाता था। लेकिन उस पर किसी भी पुरुष का अधिकार नहीं हो सकता था (ऐसा केवल सैद्धांतिक रूप से था, वास्तविकता इससे अलग भी हो सकती है)।
वर्तमान समय में प्रचलित दहेज प्रथा को हम स्त्री धन से जोड़कर देख सकते हैं। अपने आप को जीवित रखने के लिए बदलते समय के साथ-साथ कुछ मान्यताएं एवं परंपराएं बदल जाती है। विज्ञान का प्रसिद्ध अनुकूलन का नियम भी यही कहता है।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
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