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स्वस्तिक

स्वस्तिक

लेखक:- रामशरण शर्मा
पुस्तक:- प्रारंभिक भारत का परिचय
प्रकाशक:- ओरियंट ब्लैकस्वान
प्र काशन वर्ष:- 2004
प्रकाशन स्थल:- हैदराबाद
पृष्ठ संख्या:- 103

स्वस्तिक

स्वस्तिक (卐) आर्य तत्व का चिन्ह माना जाता है। जब जर्मनी में नात्सियों ने इसे विशुद्ध आर्यत्व का प्रतीक घोषित किया तो इसका विश्वव्यापी महत्व हो गया। वैदिक साहित्य में स्वस्तिक की चर्चा नहीं है। यह शब्द ईसवी सन की प्रथम प्रारंभिक शताब्दियों के ग्रंथों में मिलता है, जबकि धार्मिक कला में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है। किंतु ओरेल स्टाइन का मत है कि यह प्रतीक पहले पहल बलूचिस्तान स्थित शाही टुंप की धूसर भांड वाली संस्कृति में मिलता है, जिसे हड़प्पा से पहले माना जाता है और जिसका संबंध दक्षिण ईरान की संस्कृति से स्थापित किया जाता है।

स्वस्तिक

इससे आप लोगों को बहुत अंदरुनी और गूढ़ तथ्य मिलेगा। क्योंकि जर्मनी में जब नाजीवाद अपने चरम पर था, तब हिटलर इस स्वस्तिक के प्रतीक का प्रयोग अपनी भुजाओं पर बांधकर शक्ति प्रदर्शन के लिए किया करता था। यह एक आश्चर्य की बात है, कि भारत में भी हिंदू धर्म के कुछ लोग इस प्रतीक का प्रयोग अपने धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम में किया करते हैं। इस प्रतीक का भारत में प्रचार का संबंध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से हो सकता है, क्योंकि यह एक फासीवादी संस्था है। जिस समय जर्मनी में नाजीवाद प्रचलित था, ठीक उसी समय इटली में फासीवाद अपने चरम पर था और इटली के नेता मुसोलिनी से मुलाकात के पश्चात ही 1925 में आर० एस० एस० प्रभाव में आया था।

यह एक संवेदनशील तथ्य है, अर्थात भारत की प्रारंभिक एवं आधुनिक राजनीति में इसका एक बड़ा रोल है। सरकारें नहीं चाहती कि सच्चाई सब के सामने आए। लेकिन हम आप लोगों के सामने इन तथ्यों को ला रहे हैं, ताकि आप लोग इन तथ्यों के माध्यम से जागरूक एवं समझदार होकर अपने जान में वृद्धि कर सके।

नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।

सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।

ब्राह्मी लिपि

ब्राह्मी लिपि लेखक:- डी. एन. झा पुस्तक:- प्राचीन भारत: एक रूपरेखा प्रकाशक:- मनोहर पब्लिशर्स एंड डिसटीब्यूटर्स प्रकाशन वर्ष:- 1997 प्रकाशन स्...

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