सिक्केे
सिक्केे
लेखक:- डीएन झा और कृष्ण मोहन श्रीमाली
पुस्तक:- प्राचीन भारत का इतिहास
प्रकाशक:- हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रकाशन वर्ष:- 2009
प्रकाशन स्थल:- दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 16
पुरातात्विक सामग्री में सिक्कों का स्थान भी कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है। भारत के प्राचीनतम सिक्कों पर अनेक प्रकार के चिन्ह उत्कीर्ण है। उन पर किसी प्रकार का लेख नहीं है। ये सिक्के 'आहत सिक्के' कहलाते हैं। इन पर जो चिन्ह बने हैं, उनका ठीक-ठीक अर्थ ज्ञात नहीं है। इन सिक्कों पर सिक्का लेख के अतिरिक्त बहुदा सिक्के को चालू करने वाले शासक की आकृति भी होती थी। ये सिक्के प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास लिखने में बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
इतिहास और पुरातत्व का संबंध बहुत पुराना है। ये दोनों विषय एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। प्राचीन इतिहास पर रिसर्च करने के लिए पुरातात्विक साक्ष्यों का होना बहुत जरूरी हो जाता है। पुरातात्विक साक्ष्य में सिक्के, टेरा कोटा की मूर्तियां, मिट्टी के बर्तन, धातु के आभूषण, भवनों के अवशेष, पाषाण औजार और अस्थियां आदि आते हैं। उपरोक्त पुरातात्विक साक्ष्यों का प्रयोग अनुसंधान के वक्त अनुसंधानकर्ता एवं इतिहासकार किया करते हैं। पुरातात्विक साक्ष्यों को जमीन के अंदर से ढूंढ कर निकालना पुरातत्वविदो का कार्य होता है।
इस लेख में हमने सिक्के के बारे में तथ्य प्रस्तुत किए हैं, अर्थात यदि कोई शोधार्थी प्राचीन भारत के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक अथवा सांस्कृतिक इतिहास पर रिसर्च कर रहा हो तो वह सिक्कों के माध्यम से अपनी रिसर्च की गुणवत्ता को बेहतर कर सकता है। पुरातात्विक साक्ष्य लिखित साक्ष्यों के मुकाबले अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं, क्योंकि इन में छेड़छाड़ करना बहुत मुश्किल होता है।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
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