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नियतिवादी सिद्धांत

नियतिवादी सिद्धांत

लेखक:- डॉ० झारखंड चौबे
प्रकाशक:- विश्वविद्यालय प्रकाशन
प्रकाशन वर्ष:- 2015
प्रकाशन स्थल:- वाराणसी।
पृष्ठ संख्या:- 197

नियतिवादी सिद्धांत

"नियति वाद एक विश्वास है, मनुष्य नियति की प्रेरणा से कार्य करता है। बाह्य, आंतरिक तथा अलौकिक शक्तियां मनुष्य को कार्य करने के लिए प्रोत्साहित, प्रेरित तथा विवश करती है। इतिहास की भारतीय तथा यूनानी अवधारणा हीगल के विश्वात्मा, एडम स्मिथ का गुप्त हस्त, काल मार्क्स का अलौकिक शक्ति के हस्तक्षेप में अटूट विश्वास प्रमाणित करता है कि मनुष्य की इच्छा के विपरीत परिणाम प्राप्त होता है।"

प्रिय पाठको हम जानते हैं, कि आप लोग हमारी वेबसाइट पर अपने शोध से संबंधित तथ्यों को खोजने के लिए आते रहते हैं। प्रस्तुत इंडेक्स कार्ड में हमने प्रसिद्ध और भारत के राष्ट्रवादी इतिहासकार समूह के डॉ० झारखंड चौबे द्वारा लिखित इतिहास दर्शन नामक पुस्तक से नियतिवाद के विषय में फैक्ट उठाया है।

अधिकांश यूरोपिय एवं धर्मनिरपेक्ष इतिहासकार इनके विचार से सहमत नहीं है, क्योंकि उनका मानना है कि यह विचार पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकता है। एक मान्यता के अनुसार अधिकांश तथाकथित राष्ट्रवादी भारतीय इतिहासकार धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक पूर्वाग्रह से ग्रसित रहते हुए इतिहास एवं साहित्य लेखन की परंपरा से जुड़े रहें हैं।
            
नीचे इस पुस्तक का लिंक उपलब्ध है ताकि आप इस पुस्तक को खरीद कर स्वयं पढ़ सके या किसी इतिहास के विद्यार्थी को गिफ्ट कर सकें। हम भविष्य में भी इस प्रकार के इंडेक्स कार्ड आप लोगों के लिए बनाते रहेंगे ताकि आप लोगों के शोध की गुणवत्ता अच्छी हो ।

नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।

सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।

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