कनिष्क
कनिष्क
लेखक:- डीएन झा
पुस्तक:- प्राचीन भारत: एक रूपरेखा
प्रकाशक:- मनोहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स
प्रकाशन वर्ष:- 1997
प्रकाशन स्थल:- नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या:- 83
बौद्ध धर्म से कनिष्क का बहुत ही गहरा संबंध था। उसने स्वयं बौद्ध धर्म को अपनाकर कश्मीर में चौथी बौद्ध सभा आयोजित की, जहां बौद्ध मत और शिक्षा से संबंधित अनेक विषयों पर विचार-विमर्श हुए। उसने धर्म प्रचारकों को खूब प्रोत्साहित किया। उसकी प्रेरणा से मध्य एशिया और चीन में बौद्ध धर्म के प्रचारक भेजे गए। कहते हैं कि कनिष्क ने पेशावर में एक विशाल स्तूप बनवाया, जहां बुद्ध के स्मृति चिन्हों को गाड़ दिया गया। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने, जो सातवीं शताब्दी में भारत आया था, स्तूप का विस्तृत वर्णन किया है।
कुषाण वंश का महान सम्राट कनिष्क भारत के इतिहास में एक अलग ही स्थान रखता है। किसानों ने भारत में सबसे शुद्ध सोने के सिक्के प्रचलित किए। वह भारत का व्यापारिक स्वर्णकाल था और उसी समय भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। तब भारत की वस्तुओं का निर्यात ज्यादा और विदेशी मुद्रा का आयात ज्यादा होता था। उस समय भारत का व्यापार सकारात्मक थाा, जिससे यूरोप का अधिकांश धन भारत में आ रहा था। भारत से काला सोना अर्थात काली मिर्च यूरोप को भेजी जाती थी, जो मांस को सड़ने से रोकती थी, एवं खाने के टेस्ट को बढ़ा देती थी। बदले में इसके यूरोप से सोना और चांदी आता था।
कनिष्क बौद्ध धर्म का अनुयाई था एवं उसने बौद्ध धर्म के अलावा अन्य धर्मों को भी संरक्षण दिया। उसने बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए भी अच्छा कार्य किया। कनिष्क के समय में ही गांधार कला और मथुरा कला अपने विकसित रूप में प्रकट हुई। क्योंकि कनिष्क ने यूनानी कला को भारत में इंप्लीमेंट करवा दिया था।
कनिष्क के बारे में और जानने के लिए अथवा कनिष्क के विषय में रिसर्च करने के लिए आप लोग उपरोक्त पुस्तक को पढ़ सकते हैं। प्राचीन भारत को जानने के लिए भी आप इसी पुस्तक को पढ़ सकते हैं।
नोट:- अक्सर ऐसा देखा गया है, कि किसी भी सूचना के प्राथमिक एवं द्वितीय स्त्रोतों साथ कम या ज्यादा छेड़छाड़ होने की संभावना रही है। वैसे स्त्रोतों में उपलब्ध कराई गई जानकारी लेखक के स्वयं के विचार भी हो सकते हैं अथवा तत्कालीन समय की सच्चाई भी, यह पता लगाना भी शोधार्थी का कार्य है। यह प्रत्येक शोधार्थी का कर्तव्य है, कि वह किसी भी स्त्रोत का प्रयोग करने से पहले उसकी बाह्य एवं आंतरिक आलोचना की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही यह समझने का प्रयास करें, कि वह जिस स्त्रोत का प्रयोग अपने शोध हेतु कर रहा है क्या वह सत्य है।
सामान्यत: ऐसा देखा गया है, कि मूल स्त्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाती है/थी (उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद में दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। ऐसा कुछ शोधार्थी एवं विद्वानों के द्वारा कहा जाता है)। ऐसा जानना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
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